लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण

मार्कण्डेय पुराण

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :294
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1196
आईएसबीएन :81-293-0153-9

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

317 पाठक हैं

अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...

जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापों से विभिन्न नरकों की प्राप्ति का वर्णन

 

पुत्र (सुमति) कहता है- पिताजी! इससे पहले सातवें जन्ममें मैं एक वैश्यके कुलमें उत्पन्न हुआ था। उस समय पौंसलेपर पानी पीनेको जाती हुई गौओंको मैंने वहाँ जानेसे रोक दिया था। उस पापकर्मके फलसे मुझे अत्यन्त भयङ्कर नरकमें जाना पड़ा, जो आगकी लपटोंके कारण घोर दुःखदायी प्रतीत होता था। उसमें लोहेकी- सी चोंचवाले पक्षी भरे पड़े थे। वहाँ पापियोंके शरीरको कोल्हूमें पेरनेके कारण जो रक्तकी धारा बहती थी, उससे कीचड़ जम गयी थी और काटे जानेवाले दुष्कर्मियोंके नरकमें पड़नेसे सब ओर घोर हाहाकार मचा रहता था। उस नरकमें पड़े मुझे सौ वर्षसे कुछ अधिक समय बीत गया। मैं महान् ताप और पीड़ासे सन्तप्त रहता था। प्यास और जलन बराबर बनी रहती थी तदनन्तर एक दिन सहसा सुख देनेवाली ठंडी हवा चलने लगी। उस समय मैं तप्तबालुका और तप्तकुम्भ नामक नरकोंके बीच था। उस शीतल वायुके सम्पर्कसे उन नरकोंमें पड़े हुए सभी जीवोंकी यातना दूर हो गयी। मुझे भी उतना ही आनन्द हुआ, जितना स्वर्गमें रहनेवालोंको वहाँ प्राप्त होता है।

'यह क्या बात हो गयी?' यों सोचते हुए हम सभी जीवोंने आनन्दकी अधिकताके कारण एकटक नेत्रोंसे जब चारों ओर देखा, तब हमें बड़े ही उत्तम एक नररत्न दिखायी दिये। उनके साथ बिजलीके समान कान्तिमान् एक भयङ्कर यमदूत था, जो आगे होकर रास्ता दिखा रहा था और कहता था, 'महाराज! इधरसे आइये' सैकड़ों यातनाओंसे व्याप्त नरकको देखकर उन पुरुषरत्नको बड़ी दया आयी। उन्होंने यमदूतसे कहा।

आगन्तुक पुरुष बोले- यमदूत ! बताओ तो सही, मैंने कौन-सा ऐसा पाप किया है, जिसके कारण अनेक प्रकारकी यातनाओंसे पूर्ण इस भयङ्कर नरकमें मुझे आना पड़ा है? मेरा जन्म जनकवंशमें हुआ था! मैं विदेह देशमें विपश्चित् नामसे विख्यात राजा था और प्रजाजनोंका भलीभाँति पालन करता था। मैंने बहुत-से यज्ञ किये। धर्मके अनुसार पृथ्वीका पालन किया। कभी युद्धमें पीठ नहीं दिखायी तथा अतिथिको कभी निराश नहीं लौटने दिया। पितरों, देवताओं, ऋषियों और भृत्योंको उनका भाग दिये बिना कभी मैंने अन्न ग्रहण नहीं किया। परायी स्त्री और पराये धन आदिकी अभिलाषा मेरे मनमें कभी नहीं हुई। जैसे गौएँ पानी पीनेकी इच्छासे स्वयं ही पौंसलेपर चली जाती हैं, उसी प्रकार पर्वके समय पितर और पुण्यतिथि आनेपर देवता स्वयं ही अपना भाग लेनेको मनुष्यके पास आते हैं। जिस गृहस्थके घरसे वे लंबी साँस लेकर निराश लौट जाते हैं, उसके इष्ट और पूर्त-दोनों प्रकारके धर्म नष्ट हो जाते हैं। पितरोंके दुःखपूर्ण उच्छ्वाससे सात जन्मोंका पुण्य नष्ट होता है और देवताओंका निःश्वास तीन जन्मोंका पुण्य क्षीण कर देता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है; इसलिये मैं देवकर्म और पितृकर्मके लिये सदा ही सावधान रहता था। ऐसी दशामें मुझे इस अत्यन्त दारुण नरकमें कैसे आना पड़ा?

उन महात्माके इस प्रकार पूछनेपर यमराजका दूत देखनेमें भयङ्कर होनेपर भी हमलोगोंके सुनते-सुनते विनययुक्त वाणीमें बोला।

यमदूतने कहा- महाराज! आप जैसा कहते हैं, वह सब ठीक है। उसमें तनिक भी सन्देहके लिये स्थान नहीं है। किन्तु आपके द्वारा एक छोटा-सा पाप भी बन गया है। मैं उसे याद दिलाता हूँ। विदर्भराजकुमारी पीवरी, जो आपकी पत्नी थी, एक समय ऋतुमती हुई थी; किन्तु उस अवसरपर केकयराजकुमारी सुशोभनामें आसक्त होनेके कारण आपने उसके ऋतुकालको सफल नहीं बनाया। वह आपके समागमसुखसे वञ्चित रह गयी। ऋतुकालका उल्लङ्घन करनेके कारण ही आपको ऐसे भयङ्कर नरकतक आना पड़ा है। जो धर्मात्मा पुरुष काममें आसक्त होकर स्त्रीके ऋतुकालका उल्लङ्घन करता है, वह पितरोंका ऋणी होनेसे पापको प्राप्त हो नरकमें पड़ता है। राजन्! इतना ही आपका पाप है। इसके अतिरिक्त और कोई पाप नहीं है। इसलिये आइये, अब पुण्यलोकोंका उपभोग करनेके लिये चलिये।

राजा बोले- देवदूत! तुम जहाँ मुझे ले चलोगे, वहाँ चलूँगा; किन्तु इस समय कुछ पूछ रहा हूँ, उसका तुम्हें ठीक-ठीक उत्तर देना चाहिये। ये वज्रके समान चोंचवाले कौए, जो इन पुरुषोंकी आँखें निकाल लेते हैं और फिर उन्हें नये नेत्र प्राप्त हो जाते हैं, इन लोगोंने कौन- सा निन्दित कर्म किया है? इस बातको बताओ। मैं देखता हूँ, कौए इनकी जीभ उखाड़ लेते हैं, किन्तु फिर नयी जीभ उत्पन्न हो जाती है। इनके सिवा ये दूसरे लोग क्यों आरेसे चीरे जाते हैं और अत्यन्त दुःख भोगते हैं? कुछ लोग तपायी हुई बालुकामें भूने जाते हैं और कुछ लोग खौलते हुए तेलमें पड़कर पक रहे हैं। लोहेके समान चोंचवाले पक्षी जिन्हें नोच-नोचकर खींच रहे हैं, वे कैसे लोग हैं ? ये बेचारे शरीरकी नस- नाड़ियोंके कटनेसे पीड़ित हो बड़े जोर-जोरसे चीखते और चिल्लाते हैं। लोहेकी चोंचकी आघातसे इनके सारे अङ्गोंमें घाव हो गया है, जिससे इन्हें बड़ा कष्ट होता है। इन्होंने ऐसा कौन-सा अनिष्ट किया है, जिसके कारण ये रात-दिन सताये जा रहे हैं ? ये तथा और भी जो पापियोंकी यातनाएँ देखी जाती हैं, वे किन कर्मों के परिणाम हैं ? ये सब बातें मुझे पूर्णरूपसे बतलाओ।

यमदूतने कहा- राजन् ! मनुष्यको पुण्य और पाप बारी-बारीसे भोगने पड़ते हैं। भोगनेसे ही पाप अथवा पुण्यका क्षय होता है। लाखों जन्मोंके सञ्चित पुण्य और पाप मनुष्योंके लिये सुख- दुःखका अंकुर उत्पन्न करते हैं। जैसे बीज जलकी इच्छा रखते हैं, उसी प्रकार पुण्य और पाप देश- काल, अन्यान्य कर्म और कर्ताकी अपेक्षा करते हैं। जैसे राह चलते समय काँटेपर पैर पड़ जानेसे उसके चुभनेपर थोड़ा दुःख होता है, उसी प्रकार किसी भी देश-कालमें किया हुआ थोड़ा पाप थोड़े दुःखका कारण होता है; किन्तु वही पाप जब बहुत अधिक मात्रामें हो जाता है तब पैरमें शूल अथवा लोहेकी कील गड़नेके समान अधिक दु:ख प्रदान करता है- सिरदर्द आदि दुस्सह रोगोंका कारण बनता है। जैसे अपथ्य भोजन और सर्दी-गर्मीका सेवन श्रम और ताप आदिका जनक होता है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न पाप भी फलकी प्राप्ति कराने में एक-दूसरेकी अपेक्षा रखते हैं। ऐसे ही बड़े-बड़े पाप दीर्घकालतक रहनेवाले रोग और विकारोंके उत्पादक होते हैं। उन्हींसे शस्त्र और अग्निका भय प्राप्त होता है। वे ही असह्य पीड़ा और बन्धन आदि फल प्रदान करते हैं। इस प्रकार जीव अनेक जन्मोंके सञ्चित पुण्य और पापोंके फलस्वरूप सुख और दुःखोंको भोगता हुआ इस लोकमें स्थित रहता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. वपु को दुर्वासा का श्राप
  2. सुकृष मुनि के पुत्रों के पक्षी की योनि में जन्म लेने का कारण
  3. धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
  4. राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र
  5. पिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जीवकी मृत्यु तथा नरक-गति का वर्णन
  6. जीवके जन्म का वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकों का वर्णन
  7. जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापों से विभिन्न नरकों की प्राप्ति का वर्णन
  8. पापोंके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियोंकी प्राप्ति तथा विपश्चित् के पुण्यदान से पापियों का उद्धार
  9. दत्तात्रेयजी के जन्म-प्रसङ्ग में एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूया जी का चरित्र
  10. दत्तात्रेयजी के जन्म और प्रभाव की कथा
  11. अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
  12. पातालकेतु का वध और मदालसा के साथ ऋतध्वज का विवाह
  13. तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
  14. ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
  15. मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
  16. मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
  17. श्राद्ध-कर्म का वर्णन
  18. श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
  19. त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
  20. सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
  21. योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
  22. योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
  23. अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
  24. मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
  25. एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
  26. प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
  27. स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
  28. दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
  29. जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
  30. श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
  31. भारतवर्ष में भगवान् कूर्म की स्थिति का वर्णन
  32. भद्राश्व आदि वर्षोंका संक्षिप्त वर्णन
  33. स्वरोचिष् तथा स्वारोचिष मनुके जन्म एवं चरित्रका वर्णन
  34. पद्मिनी विद्याके अधीन रहनेवाली आठ निधियोंका वर्णन
  35. राजा उत्तम का चरित्र तथा औत्तम मन्वन्तर का वर्णन
  36. तामस मनुकी उत्पत्ति तथा मन्वन्तरका वर्णन
  37. रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
  38. चाक्षुष मनु की उत्पत्ति और उनके मन्वन्तर का वर्णन
  39. वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय
  40. सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
  41. मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
  42. देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध
  43. सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
  44. इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
  45. देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
  46. धूम्रलोचन-वध
  47. चण्ड और मुण्ड का वध
  48. रक्तबीज-वध
  49. निशुम्भ-वध
  50. शुम्भ-वध
  51. देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
  52. देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
  53. सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान
  54. नवें से लेकर तेरहवें मन्वन्तर तक का संक्षिप्त वर्णन
  55. रौच्य मनु की उत्पत्ति-कथा
  56. भौत्य मन्वन्तर की कथा तथा चौदह मन्वन्तरों के श्रवण का फल
  57. सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
  58. अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
  59. सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
  60. दिष्टपुत्र नाभागका चरित्र
  61. वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
  62. राजा खनित्रकी कथा
  63. क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
  64. राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
  65. श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai